सिवान: करबला में एक एक कर शहीद होता गया हुसैनी लश्कर

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✍️परवेज़ अख्तर/सिवान: पैगंबर -ए- इस्लाम हजरत मोहम्मद ( सल۔) के बाद उनके दामाद हजरत अली (रजी۔) चौथे खलीफा बनाए गए। दुश्मनों ने उन्हें धोखे से शहीद कर दिया। इसके बाद हजरत मोहम्मद के नवासे और हजरत अली के एक पुत्र इमाम हसन को दुश्मनों ने जहर देकर मार डाला। तब उमय्या वंश के अमीर मुआविया का पुत्र यजीद जबरन अपने को खलीफा घोषित कर दिया। उसने हजरत इमाम हुसैन को अधीनता स्वीकार करने का आदेश दिया। वह हजरत मोहम्मद के धर्म इस्लाम में बदलाव करना चाहता था। इमाम हुसैन ने उसकी अधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। 4 मई 680 ईसवीं को इमाम हुसैन मदीना से मक्का पहुंचे। वहां यजीद के लिए उन्होंने ना किसी से बैय्यत ली और न ही अपने पूर्व के निर्णय में कोई परिवर्तन लाया। कूफा के लोगों को जब मालूम हुआ कि वे मक्का आ चुके हैं तो उन्होंने एक एक कर 52 पत्र इमाम हुसैन को लिखकर कूफा आने का बुलावा भेजा।

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पत्र के जवाब में इमाम हुसैन ने लिखा:- आप लोगों के मोहब्बत व अकीदत का ख्याल करते हुए फिलहाल भाई मुस्लिम बिन अकील को कूफा भेज रहा हूं। अगर उन्होंने देखा कि कूफा के हालात सामान्य है तो मैं भी चला आऊंगा। हजरत मुस्लिम अपने दो छोटे बेटा मोहम्मद और इब्राहिम को साथ लेकर कूफा पहुंचे। उन्होंने बैय्यत शुरू की। एक हफ्ता के अंदर बारह हजारों लोगों ने मुस्लिम के हाथों इमाम हुसैन की बैय्तय कबूल की। कूफा के हालात सामान्य देखकर मुस्लिम इमाम हुसैन को पत्र भेजा कि कूफा के लोग अपने वचन पर कायम हैं। इधर यजीद ने कूफा के गवर्नर को हटाकर सय्याद को गवर्नर नियुक्त कर दिया। उसने फौज को मुस्लिम को गिरफ्तार कर खत्म करने तथा हुसैन के आने पर यजीद की बैय्यत तलब करने को कहा। इंकार करने पर उन्हेंभी कत्ल करने का आदेश दे दिया। मुस्लिम को कत्ल कर दिया गया।

उधर मुस्लिम का पत्र पाकर इमाम हुसैन अपने परिवार और खानदान के साथ कूफा के लिए रवाना हो गए।वहां पहुंचे तो दुश्मन फौज ने उन्हें घेर लिया और कर्बला ले गए। इमाम हुसैन कर्बला में फुर्रात नदी के किनारे खेमा (तंबू) डाला। इसके पहले उस जमीन को उन्होंने खरीदा। उधर यजीद अपने सरदारों से द्वारा इमाम हुसैन पर अधीनता स्वीकार करने के लिए दबाव बनाया, लेकिन किसी भी तरह की शर्त मानने से इनकार कर दिया। दबाव बढ़ाने के लिए यजीद ने फुर्रात नदी और नहरों पर फौज का पहरा बैठा दिया। ताकि हुसैनी लश्कर को पानी नहीं मिल सके। तीन दिन गुजर गए। इमाम के परिवार के छोटे और मासूम बच्चे प्यास से तड़पने लगे।फिर भी हजरत इमाम हुसैन अपने इरादे से नहीं डीगे।यह देख दुश्मन फौजियों ने खेमे पर हमला बोल दिया।इमाम हुसैन ने एक रात की मोहलत मांगी।

रात में हुसैन इबादत की और अल्लाह की से दुआ मांगी कि मेरे परिवार, मेरे बच्चे शहीद हो जाएं लेकिन दीन इस्लाम बचा रहे। 10 अक्टूबर 630 ई मुहर्रम की10 तारीख (यौम ए आशुरह) की सुबह होते ही जंग छिड़ गई। एक तरफ लाखों हथियारो से लैस फौज और दूसरी तरफ हुसैन के साथ 72 लोग थे। इनमें छह महीने से लेकर 13 वर्ष तक के बच्चे भी शामिल थे। दुश्मनों ने छह माह के प्यास से तड़पते बच्चे अली असगर को तीर मार दी। 13 साल के हजरत कासिम 32 साल के अब्बास और 18 साल के अली अकबर को दुश्मनों ने शहीद कर दिया गया। मुस्लिम इब्न अउबह शहीद हुए। एक एक कर सभी चाहने वाले शहीद होते गये। हाशिम ने शहादत कबूल की।कासिम जुदा हुए।अली अकबर रुखसत हुए।एक-एक कर सबका लाश खेमा में लाया गया। फिर इमाम हुसैन को भी दुश्मनी फौजियों ने शहीद कर डाला। उनके परिवार के खेमा में आग लगा दी। हजरत इमाम हुसैन के नेतृत्व में हुसैनी लश्कर शक्तिशाली हुकूमत से जंंग हार कर भी जीत गया। यजीदी फौज मोर्चा जीत कर भी हार कबूल कर लिया।